Wednesday 24 April 2013

शुरुवात..

एक दिन निकला मैं अनजान सी राहों में,
लेने किसी को अपनी आहों में, मगर
अब चलते-चलते बहुत दूर निकल आया हूँ
और अब भूल चूका हूँ की शुरुवात कहाँ से की थी।

उसकी आवाज़ की खनक को सुर मान के,
उसके चहरे की चमक को सूरज मान के,
बस वो सूरज पकड़ने निकल पड़ा हूँ,
मगर  अब भूल चूका हूँ की शुरुवात कहाँ से की थी।

शुक्र है खुदा की रस्ते में वो मिली,
बिना कुछ कहे बस साथ में चली,
मैं भी बस साथ उसके चलता रहा,
क्यूंकि मैं भूल चूका था की शुरुवात कहाँ से की थी।

रास्ते में मुझे सबने रुका,
हवायों ने रुका ,मंजिलों ने तो  दे दिया धोका
मगर मैं उसे देखकर  बस चलता रहा,
क्यूंकि मैं  तो भूल चूका था की शुरुवात कहाँ से की थी।

बस उसी को मैंने दिल दिया
उसके हर दर्द को दिल से जिया
शायद ये दर्द सहना मेरी रज़ा थी
मगर लोग बोले पागल ये तो तेरी सज़ा थी,
सुनाई ही नहीं दी मुझे औरों की बातें
क्यूंकि मेरे कानो में सिर्फ उसकी सदा थी,
अब भी बस साथ उसके चलता रहा
क्यूंकि मैं भूल चूका था की शुरुवात कहाँ से की थी।

एक दिन मैंने उससे कहा मेरा हाथ थाम लो, राहें आसान हो जाएँगी,
एक दिन हम पर भी ये किस्मत मेहरबान हो जाएगी,
वो बोली मैं ज़रूर चलती साथ तुम्हारे मगर ये राहें बहुत मुश्किल हैं,
दुनिया की रस्मे और कसमे इसमें शामिल हैं,
मैने उसे देखा और मुस्कुरा दिया,
क्यूंकि मैं भूल चूका था की शुरुवात कहाँ से की थी।

वो मुझसे बोली तुम भी वापस लौट जाओ अपनी राहों में,
और खुश रहो अपनी खुशनुमा अदाओं से,
ये सुन कर मैं शायद उसी पल लौट जाता,
मगर मैं तो  भूल चूका था की शुरुवात कहाँ से की थी।

आज खुश हूँ के साथ उसका प्यार है,
इकरार न सही कम से कम न साथ इनकार है,
यूँ ही मीलों चल सकता हूँ उसे देखते हुए
प्यार के मोती उसकी राहों में फ़ेकते हुए,
कुछ नंगे पाँव  चले के निशान देखकर भी अब आपस न जाऊँगा ,
क्यूंकि अगर वो साथ है तो मैं याद करना भी नहीं चाहोंगा,
की मैंने शुरुवात कहाँ से की थी।।

Friday 12 April 2013

उड़ने को जी करता है

आज फिर उड़ने को जी करता है,
राहों में यूँ पीछे जाने को जी करता है। 

मेरे हिस्से का निवाला तेरी दावत नहीं,
यूँ फड-फाड़ा के जीना मेरी आदत नहीं।

दिल का परिंदा ये गगन चूमना चाहता है,
हाथ पकड़ घटाओं का ये आसमा घूमना चाहता है। 

तोड़ कर पिंजरों को ये पंख झटकना चाहता है,
अनजान राहों पर ये फिर भटकना चाहता है। 

ये पर्वत, ये नदिया मुझे बुलाते हैं,
और रात की चादर में मुझे तारे सुलाते हैं।

आज़ादी भी सच में चीज़ बड़ी निराली है,
तुझसे मांगी नहीं, मैंने आज ये कमा ली है। 

हाथ फैलाये स्वागत मेरा नया जहाँ करता है,
बेफिक्र-बेपरवा थोडा और उड़ने को जी करता है।।   

Friday 5 April 2013

आशाओं की बिजली

शामो में एक सुबह छुपी रहती है कहीं,
उजालो में भी रातें बसी रहती हैं कहीं,
कुछ गमो के बादलों में आशाओं की बिजली होती है,
और बंजर खेत में भी नमी रहती है कहीं।

कभी आस्मा को भी धरती से मिलने की चाहत होती है कहीं,
और बर्फ में भी छुपी थोड़ी गर्माहट होती है कहीं,
कभी लफ़्ज़ों पर जज़्बात ठहर जाते है मगर
इन खामोशियों में एक आहत होती है कहीं।

ऐसे तो चाँद भी लाखों तारों में अकेला रहता है कहीं,
और चुपके से आखों से एक आसूं बहता है कहीं,
कभी एक इंसान ज़िन्दगी खुशहाल कर देता है,
और कभी भीड़ में भी अकेलेपन का एहसास रहता है कहीं।

यूँ तो सहारों की कमी नहीं राहों में मगर,
फिर भी इंसान बहक जाता है हर कहीं,
यूँ तो गम लिए सफ़र करता है मगर
फिर भी इंसान चहक जाता है हर कहीं,
दुखों के सागर में मुर्झाया सा रहता है,
मगर अपनों के चंद प्यार के अल्फाजों
से महक जाता है कहीं।।  

ऐसा देश बनाएँ

चलो मिलकर ऐसा देश बनाएँ,
जहाँ पर खुश रहे हर शख्स न कोई रो पाए,

ऍ मेरे वतन, तेरे सर की कसम 
खाते हैं हम, हम तुझे ऐसा देश बनायेंगे,
जहाँ नाम तेरा फक्र से लिया जाये।
ऍ मेरे वतन के लोगो, जागो, खोलो हाथ,
इससे पहले दम घुट जाये।।

अब मुझे चल चुकी है पता देश की एहमियत,
समझ आ गई है मुझे हकीकत,
बदल सकते है इस देश की तस्वीर हम,
जो साथ गर मिल जाएँ।

चलो मिलकर ऐसा देश बनाते हैं,
जहाँ अमीर-गरीब साथ चलें साथ खाएं।
जहाँ भाई-भाई में प्यार हो. 
न कोई दुल्हन दहेज़ के लिए जलाई जाये,
जहाँ किसान न मरे क़र्ज़ के तले,
न वो अपने परिवार को ज़हर खिलाये।

आओ इस वर्ष करें इसे देश का निर्माण,
जिसमे कश्मीर को कन्याकुमारी से मिलाया जाये।

हमने फैलाया है अब तक पाप इतना की,
दूषित हो गई है हमारे पाप धोते-धोते गंगा मैया,
तो फिर बताओ,
कहाँ जाकर नहाया जाये?

आओ इस वर्ष सारे मज़हब त्याग दें,
और सिर्फ एक मज़हब अपनाएं,
न रहे कोई हिन्दू-मुस्लिम,न सिख-इसाई,
चलो खुद को एक इंसान बनायें।

लाओ,अपने लहू में उबाल इतना,
जिससे हर बाँदा मरकर भी मरे नहीं, अमर हो जाये।

तू दिखा दे चल मौत को जज़्बा वो,
जो देख मौत ज़िन्दगी के सामने झुक जाये,
तू खुद में इतनी पवित्रता ला,
जो मेरे मरने पर गगन-आसमा लड़ जाएँ,
की तेरी आत्मा उसे मिले और वो पवित्र हो जाये।

हो गणतंत्र दिवस,या स्वतंत्रता दिवस,
तू गर्व से इसे इसे माना की, संग तेरे ये दिन सारा जहाँ मनाये।

ऐ वतन,दिल से दुआ है यही की बस देख लूँ एसा देश मैं और,
मेरी जां जय हिन्द कह सुकून से निकल जाये।।