Thursday, 30 January 2014

लिखता रहूँगा

एक ग़ज़ल लिखता हूँ, लिखता रहूँगा,
यूँ ही इन अक्षरों में दिखता हूँ, दिखता रहूँगा।

जाने किस जगह वो गाँव है,
रेत पर भी बिखरी ठंडी छाँव है,
माँ कि बनाई चप्पले हैं पाँव में,
फिर भी न जाने इन में क्यूँ घाव है।
भाप बन कर उड़ गई है  नमी आँखों कि,
यूँ धुप में सिकता हूँ, सिकता रहूँगा।।

 कुछ उम्मीदें बटोरने निकला था,
थोडा ही सही मगर प्यार बटोरने निकला था,
भटकता ही रह गया इन बाज़ारों में मैं तो,
जब थोड़ी आंस खरीदने निकला था।
इन चीज़ों कि तलाश में मैं खुद ही बिक गया,
इन बाज़ारों में  मैं रोज़ बिकता हूँ, बिकता रहूँगा।।

हर घूंघट की छोर में मैंने खुद को देखा,
हर रोज़ इस भोर में मैंने खुद को देखा,
वो रकीब मेरे होने पर शक़ करता है,
पर वीरानियों के शोर में भी मैंने खुद को देखा,
असीम रूपों में मैंने खुद को पाया है,
तू आँख कर बंद , मैं दिखता हूँ, दिखता रहूँगा।।

एक ग़ज़ल लिखता हूँ, लिखता रहूँगा।।

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