Tuesday, 16 July 2013

इश्क

इश्क में थोडा यूँ करने को जी करता है,
थोडा जीने को तो थोडा मरने को जी करता है,
इश्क में जैसे टूटी हुई माला की तरह बिखर जाऊं,
यूँ बिखर के थोडा सवरने को जी करता है।।

कभी अंधेरों में भी दूर कहीं वो लौ चमके,
और मीलो फैली ख़ामोशी में भी वो आवाज़ छनके,
वैसे दिल के खेल में प्यादा भी मेरे वज़ीर पर भारी है,
और हर पहर एक नए जशन की तैयारी है,
मौत तो चंद घड़ी की मेहमान अब तो लगती है,
अब ज़िन्दगी से थोडा डरने को जी करता है।।

वो मंदिर की घंटियाँ अब गवाही देंगी,
और वो मस्जिद के धागे अब रिहाई देंगे,
की कोई नुस्खा नही छोड़ा  है तुम्हे पाने का,
अब तो रस्ता ही नहीं पता वापस जाने का,
इन राहों पर चलते हुए बस ये जी करता है,
हर दफ़ा इश्क की गहराई में थोडा और उतरने को जी करता है।   
इश्क में थोडा यूँ करने को जी करता है,
थोडा जीने को तो थोडा मरने को जी करता है।।

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