Thursday, 28 February 2013

मजबूर भारत

दूर कहीं जंगल  में एक छोटा गाँव बसता है,
जहाँ हर एक शक्श दिन रात यहाँ जगता है,
रोटी की महक से चहरे पर आ जाती है ख़ुशी, 
क्यूंकि कभी कभी किसी रोज़ ही यहाँ खाना पकता है।

भूख से रोता बच्चा जब जोर से बिलखता है 
तो कोने में बैठा उसका बाप दिल ही दिल तड़पता है, 
हालात से मजबूर औरत घर में बैठी सिसकती है 
पर आदमी यह सोचे की वो अपने घर के लिए क्या कर सकता है।

जो दिन भर में कमाता, वह प्रशासन खा जाता है,
घर की यह हालत देख कर आखों में पानी आ जाता है,
जब आसूँ  से भरी आँख लिए बच्चों को कुछ न दे पाए,
तो एसा व्यक्ति चोरी के अलावा और क्या कर सकता है,

एक तरफ तो हमारे देश में इमानदारी, सच्चाई और सरलता है,
वही दूसरी तरफ बुराई ,भ्रष्टाचार और कपटता है।
यह एस देश है जो बुराइयों में ही खुश रहता है,
ऐसे देश का विकास तो भगवान भी नहीं कर सकता है।।    

कौन हैं हम..??

एक सवाल सदियों से कुछ लोगों के मन में चला आता है,
की हर शख्स के द्वारा हमे इंसान क्यों कहा जाता है?
ये सवाल मेरे मन में भी दिन-रात चला आता है,
की कौन हैं हम..??

प्रकति का संतुलन बनाये रखने में हमारा क्या जाता है,
पेड़ लगाने से ज्यादा पेड़ काटने में मज़ा आता है,
पेड़ भी नहीं.. हमे इंसान कहा जाता है,
पर एक सवाल मेरे मन में फिर चला आता है,
की कौन हैं हम..??

हवा को हमारे द्वारा प्रदूषित किया जाता है,
हवा में कारखानों से धुआ छोड़ा जाता है,
जीवन देने वाली हवा को मरने की वजह बनाया जाता है,
इसे सोच कर फिर एक सवाल आता है 
की कौन हैं हम..??

पशुओ को जिस तरह सताया जाता है,
ये देख भगवान का भी दिल पसीज जाता है,
पशु नहीं हम क्योंकि हमारे द्वारा उन्हें परेशां किया जाता है,
यह परिवेश हमारे समक्ष एक विचार जगा  जाता है,
की कौन हैं हम..??

चलिए मने की हमे इंसान कहा जाता है,
तो ज़रा सोचिये की इंसानों को कौन सताता है?
क्यों इंसान को इंसान की जिंदिगी का फैसला करने का हक दिया जाता है?
यदि इंसान ही फैसले करेगा तो उसे भगवान  क्यों नहीं कहा जाता है?
यही सारी परिस्तिथिया एक बड़ा सवाल हमारे समक्ष खड़ा कर जाता है ...
की कौन हैं हम..??

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है ,
कुछ अधूरे से दिन और अधूरी ये रात लगती है,
कुछ भी न बाकि है अब कहने सुनने को,
फिर भी किसी नए किस्से की शुरुवात लगती है।

ये बेजुबान लम्हे भी कुछ कहना चाहते हैं,
तेरे मेरे बीच कुछ देर रहना चाहते हैं,
उम्र बिता दी है साथ तेरे मैंने,
फिर भी बहुत छोटी ये मुलाकात लगती है।

उन नन्ही सी कलियों का खिलना बाकि है,
वो भटकते परिंदों का मिलना बाकि है,
ये आसमा भी मिल गया है झुक कर इस सागर में,
ये इस कायनात की हमारे लिए सौगात लगती है।

मैंने ऑस की बूदों को जलते देखा है,
और सूरज की आँखों में आसुओं को देखा है,
ये पलके जैसे गुलाब की चादर बिछाये बैठी हैं,
ये तुझसे मिलने को बहुत बेताब लगती हैं।

कहानियां इश्क आशिकी की खूब सुनी हैं हमने,
सपनो में फरिश्तों की कहानियां बुनी हैं हमने,
चार क़दमों का ये सफ़र जेसे परियों का शहर लगता है,
ये सब हम पर लिखी हसीं किताब लगती हैं।।

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है ....

Wednesday, 27 February 2013

#1

मेरे भी कुछ ख्याब हैं जो  मैंने तकिये के सिरहाने रक्खे हैं,
उन ख्वाबों के अंगारे इस दिल में सुलगा रक्खे हैं ,
मैं जनता हूँ ऩा फूलों सा सफ़र होगा मंजिल का,
उस मंजिल की तयारी में मैंने पैर झुलसा रखे हें