Thursday, 28 February 2013

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है ,
कुछ अधूरे से दिन और अधूरी ये रात लगती है,
कुछ भी न बाकि है अब कहने सुनने को,
फिर भी किसी नए किस्से की शुरुवात लगती है।

ये बेजुबान लम्हे भी कुछ कहना चाहते हैं,
तेरे मेरे बीच कुछ देर रहना चाहते हैं,
उम्र बिता दी है साथ तेरे मैंने,
फिर भी बहुत छोटी ये मुलाकात लगती है।

उन नन्ही सी कलियों का खिलना बाकि है,
वो भटकते परिंदों का मिलना बाकि है,
ये आसमा भी मिल गया है झुक कर इस सागर में,
ये इस कायनात की हमारे लिए सौगात लगती है।

मैंने ऑस की बूदों को जलते देखा है,
और सूरज की आँखों में आसुओं को देखा है,
ये पलके जैसे गुलाब की चादर बिछाये बैठी हैं,
ये तुझसे मिलने को बहुत बेताब लगती हैं।

कहानियां इश्क आशिकी की खूब सुनी हैं हमने,
सपनो में फरिश्तों की कहानियां बुनी हैं हमने,
चार क़दमों का ये सफ़र जेसे परियों का शहर लगता है,
ये सब हम पर लिखी हसीं किताब लगती हैं।।

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है ....

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