Sunday, 16 August 2015

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है,
कुछ अधूरे से दिन और अधूरी सी ये रात लगती है
कुछ भी ना बाकी है अब कहने सुनने को,
फिर भी किसी नए किस्से की शुरुवात लगती है।। 

ये बेज़ुबां लम्हे भी कुछ कहना चाहते हैं,
तेरे मेरे बीच कुछ देर रहना चाहते हैं,
उम्र बिता दी है साथ तेरे मैंने,
फिर भी बहुत छोटी यह मुलाकात लगती है।।

उन नन्ही सी कलियों का खिलना बाकी है,
वो भटकते परिंदों का मिलना बाकी है,
यह आस्मां भी मिल गया है झुक कर इस सागर में,
यह इस कायमनात की हमारे लिए सौगात लगती है।। 

मैंने ओस की बूंदों  को जलते देखा है,
और सूरज की आँखों में आंसू को देखा है,
यह पलके जैसे गुलाब की चादर बिछाये बैठी हैं,
यह तुझसे मिलने को बहुत बेताब लगती हैं।।

कहानियां इश्क़-आशिक़ी के खूब सुनी हैं हमने,
सपनो में फरिश्तों की कहानियां बुनी है हमने,
चार कदमों  का यह सफर जैसे परियों का शहर लगता है,
यह सब हम पर लिखी हसीं किताब लगती है।।

अभी कुछ दिनों पहले की ये बात लगती है...


Saturday, 13 December 2014

मैं आतंकवाद से नहीं डरता

आज मैं भरी महफ़िल में ये एलान करता हूँ,
की मैं इस कायर आतंकवाद से नहीं डरता हूँ। 
मैं ही इनके हमले में तिल-तिल के मरता हूँ,
फिर भी यूँ बिखर कर मैं हर बार संभालता हूँ,
ये आतंकी फैलाते दहशत हज़ारों में,
ये आतंकी फोड़ते बम बाज़ारों में,
फिर भी मैं निडर होकर इस बाज़ारों से गुज़रता हूँ।।



ये कायर हैं करते हैं छुपकर वार,
हर बार लाल करते हैं ये मौत की तलवार,
मैं अब भी ज़िंदा हूँ दिल से,
क्या हुआ  जो मैं इस तलवार से हर बार मरता हूँ।  

अरे आतंकियों मेरा ये एलान सुन लो,
अपने छुपने के लिए अलग गली, अलग मकान चुन लो,
क्यूंकि अब भी मैं हर गली में तेरी मौत बन कर विश्वास से फिरता हुँ। 

मैं कोई एक आदमी नही, इस देश की जनता हूँ,
मैं ही विश्वास की बूंदो को मिलकर एक लहर बनाता हूँ,
हैं अगर हिम्मत तो आके भीड़ सामने से फिर देख मैं तेरा क्या हश्र करता हूँ। 

है नहीं मेरे देश की कमज़ोर नीव इतनी,
करले मेहनत हमे बांटने की तू जितनी,
मैं इंसान हूँ, बस इंसानियत का सम्मान करता हूँ,

है निकल रही जोश से हर आदमी की आवाज़ ये,
तय हो गया है तेरे अंत का अब आगाज़ ये,
ये दिल के कायर आतंकवाद, मैं बहादुर हूँ, तेरे वारो से नहीं डरता हूँ।
मैं फिर तुझे बता दूँ, मैं आतंकवाद से नहीं।।

Wednesday, 29 October 2014

है प्रणाम

है प्रणाम! उस सृष्टि को जिसका रूप निराला है,
जिसने सब कष्ट सहकर भी हमे ख़ुशी ख़ुशी पाला है।

 है प्रणाम! उस अम्बर को जिसका ह्रदय विराट है,
जिसके सामने झुका हर बड़ा सम्राट है।

है प्रणाम! उस उगते सूरज को जिसने जीने की आशा दी,
दूर हो गए साब गम और दूर हो गई जो निराशा थी।

है प्रणाम! डूबते सूरज को जिसने अपनी रौशनी चाँद को दी,
जिससे अन्धकार में रहे नहीं कोई कभी।

है प्रणाम! उस पेड़ को जिसने हमे है फल दिया,
खुद भूखा मर गया, हमे न मरने दिया।

है प्रणाम!उस नदी को जो निरंतर बहती रही,
हमारे द्वारा दिए कष्ट चुप चाप वो सेहती रही।

है प्रणाम! पर्वत को जो हमेशा अटल रहा,
हमे कोई आंच न आये इसलिए अविचल रहा।

है प्रणाम!उस धरती को जिसने जीवन भर हमारा साथ दिया,
मगर हमने अपनी धरती माँ को धर्म के नाम पर बाट दिया।

है प्रणाम!उस ईश्वर को जिसने हमे यह सब किया प्रदान,
उस करूणानिधि,विश्विधाता को शत- शत प्रणाम, शत-शत प्रणाम।।  

Friday, 22 August 2014

अच्छा लगता है

यूँ बेवजह किसी को अपना बनाना अच्छा लगता है.
कुछ भी सोच के यूँ मुस्कुराना अच्छा लगता है,
वो उठना सूरज के साथ और चाँद के साथ डूब जाना,
यूँ तारों के साथ जगमगाना ,
अच्छा लगता है।

तेरा साथ नहीं तेरी सोच काफ़ी है,
दिल टूटने के लिए एक खरोच काफी है,
ये यादों को बटोरने का ज़िम्मा उठा रखा है,
तेरी यादों को बो के जो कलियाँ खिल उठती हैं,
उन यादों की कलियों को सजाना,
अच्छा लगता है।

तेरा किया कोई एहसान होता तो शुक्रिया कहता,
तुझसे बिछड़ने का डर होता तो अलविदा कहता,
न जाने कितना कुछ है कहने को,
तू पास होती तो जाने क्या कहता,
वो अनकही बातों की चुभन दिल में छुपाना,
अच्छा लगता है।

रास्ते ना जाने आगे कितने हैं,
मकाम ना जाने आगे कितने हैं,
चलते चलते साथ तेरे न जाने कितनी मंज़िलें पाई हैं
जैसे लम्हों में मैंने सदियाँ बिताई हैं,
मगर यूँ जुदा हो कर तुझे पास बुलाना,
अच्छा लगता है.।।  

Friday, 31 January 2014

याद

कब से मिला नहीं हूँ तुझसे,
कब से यूँ ही बैठा हूँ,
कब से यादों में है तू मेरी,
कब से यादों से ये कहता हूँ,

क्या तुझे पता है दिल का मेरे हाल?
क्या तू भी रातों को करती है मेरा ख्याल?
क्या मुझे याद करके तेरी भी आखें नम हो जाती हैं?
तेरी परछाई कुछ कहती नहीं मुझसे,
बस शर्मा के गुम हो जाती है।

तेरी यादों का पीछा करता रहता हूँ मैं सदा,
हर कदम पर मुझे याद आती तेरी हर अदा ,
कब से तेरे साये का पीछा कर अब कितना दूर आ गया हूँ,
क्या बताऊँ तुझे हाल दिल का, मैं तो हसने की अदा भी भूल गया हूँ।

लोग कहते हैं तेरे जैसे आशिक प्यार नहीं पाते,
मेरी उम्मीद तोड़ कर कहते टूटी शाखों पे फूल नहीं आते।
ज़िन्दगी बेकार उनकी जो प्यार बिना जीते हैं,
मैं सुनता नही हूँ बात उनकी, वो घर जला कर शराब हैं।। 

Thursday, 30 January 2014

लिखता रहूँगा

एक ग़ज़ल लिखता हूँ, लिखता रहूँगा,
यूँ ही इन अक्षरों में दिखता हूँ, दिखता रहूँगा।

जाने किस जगह वो गाँव है,
रेत पर भी बिखरी ठंडी छाँव है,
माँ कि बनाई चप्पले हैं पाँव में,
फिर भी न जाने इन में क्यूँ घाव है।
भाप बन कर उड़ गई है  नमी आँखों कि,
यूँ धुप में सिकता हूँ, सिकता रहूँगा।।

 कुछ उम्मीदें बटोरने निकला था,
थोडा ही सही मगर प्यार बटोरने निकला था,
भटकता ही रह गया इन बाज़ारों में मैं तो,
जब थोड़ी आंस खरीदने निकला था।
इन चीज़ों कि तलाश में मैं खुद ही बिक गया,
इन बाज़ारों में  मैं रोज़ बिकता हूँ, बिकता रहूँगा।।

हर घूंघट की छोर में मैंने खुद को देखा,
हर रोज़ इस भोर में मैंने खुद को देखा,
वो रकीब मेरे होने पर शक़ करता है,
पर वीरानियों के शोर में भी मैंने खुद को देखा,
असीम रूपों में मैंने खुद को पाया है,
तू आँख कर बंद , मैं दिखता हूँ, दिखता रहूँगा।।

एक ग़ज़ल लिखता हूँ, लिखता रहूँगा।।

Tuesday, 16 July 2013

इश्क

इश्क में थोडा यूँ करने को जी करता है,
थोडा जीने को तो थोडा मरने को जी करता है,
इश्क में जैसे टूटी हुई माला की तरह बिखर जाऊं,
यूँ बिखर के थोडा सवरने को जी करता है।।

कभी अंधेरों में भी दूर कहीं वो लौ चमके,
और मीलो फैली ख़ामोशी में भी वो आवाज़ छनके,
वैसे दिल के खेल में प्यादा भी मेरे वज़ीर पर भारी है,
और हर पहर एक नए जशन की तैयारी है,
मौत तो चंद घड़ी की मेहमान अब तो लगती है,
अब ज़िन्दगी से थोडा डरने को जी करता है।।

वो मंदिर की घंटियाँ अब गवाही देंगी,
और वो मस्जिद के धागे अब रिहाई देंगे,
की कोई नुस्खा नही छोड़ा  है तुम्हे पाने का,
अब तो रस्ता ही नहीं पता वापस जाने का,
इन राहों पर चलते हुए बस ये जी करता है,
हर दफ़ा इश्क की गहराई में थोडा और उतरने को जी करता है।   
इश्क में थोडा यूँ करने को जी करता है,
थोडा जीने को तो थोडा मरने को जी करता है।।