गम से उठता है सूरज, दुखों के संग डूब जाता है,
चंदा भी युहीं डर-डर के अब तो बाहर आता है,
ग़मों में जागती है सुबह, अब दुखों से भरी रात है,
फिर भी गर्व से कहता है इंसा अपनी तो क्या बात है!
लबों पर रहती है प्यास और भूख पेट में मरती है,
अपने लाल को घर से निकालने में अब हर माँ डरती है,
मौत से भी बुरी हो चुकी अब ज़िन्दगी की हालत है,
फिर भी गर्व से कहता है इंसा अपनी तो क्या बात है!
अब तो किसी के पीठ में किसी का खंजर रहता है,
अब लोगों के होंठों से लालच का थूक बहता है,
करते बुराई उसकी हैं,सामने कहते साथ-साथ हैं,
फिर भी गर्व से कहता है इंसा अपनी तो क्या बात है!
उड़ गई दिल से हया, न मुह पर शर्म-लिहाज़ है,
अपनों से रूठा-रूखा अब अपनों का मिजाज़ है,
इश्वर समझता है खुद को, जानता नहीं उसकी क्या औकात है,
फिर भी गर्व से कहता है इंसा अपनी तो क्या बात है!
अब आदमी खुद से प्यार करता है,
और खुद के हुनर पर मरता है,
उसे लगता है की वो दुनिया को उस खुदा की सौगात है,
इसलिए शायद गर्व से कहता है इंसा अपनी तो क्या बात है!
खुद को खुद में बदल कर देख बना खुद को इंसा,
तू प्यार का दीपक बाँट सभी को, न कर किसी से इर्षा,
फिर मिलेगा तुझे प्यार सबका,
होगा वो भी अपना जो तेरे लिए अज्ञात है,
फिर तो पूरा संसार तुझसे कहेगा वाह आपकी क्या बात है!!
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