Sunday, 3 March 2013

मेरे अंदर का शहर

हर बात पर कुछ कहता है,
मेरे अन्दर मेरा एक खुद का शहर रहता है,
कभी शोर होता है तो कभी गुप सन्नाटा है,
यहाँ प्यार और पाप का धर्म कांटा है।

कभी रोता है बिलख कर तो कभी हस-हस कर थक जाता है,
कभी खाली रहता है हर पन्ना तो कभी मस्त किस्सा पक्क जाता है।

कभी चिल्लाती है हर गली,
तो कभी हर गली सुनसान है,
कभी महफ़िल लगती है सबकी तो कभी सब एक दुसरे से अनजान हैं।

कभी यहाँ रात में भी उजाला है
तो कभी दिन भी अंधेरों से भरा है,
कभी पानी भी शहद लगता है,
तो कभी शहद का स्वाद भी खरा है.

कभी गर्मी की हवा सर्द लगती है,
तो कभी ठंड में आता पसीना है,
कभी एक दिल में कई दिल बसते हैं,
कभी बस ये खाली बंजर सीना है।

कभी उम्मीदों की लहर उठती है और कभी ठंडी पड़ जाती है,
कभी सपनो का करवा चलता है दिन भर,
कभी भरी रात में भी नींद खुल जाती हैं।

कभी प्यार की छीटों से शहर भीग जाता है,
तो कभी नफरत की आग जलाती है,
कभी ये शहर दुनिया  की राहों पर चलता है,
तो कभी ये शहर ये दुनिया चलाती है।

कभी ज़िन्दगी खूबसूरत है यहाँ पर,
तो कभी मौत भी यहाँ मरती है,
कभी ईशवर पर ही विशवास होता है,
तो कभी ईशवर से ही शिकायत करती है।


कभी इसी शहर में दिल मेरा बस्ता है,
तो कभी यहाँ ये भाग जाने को दिल करता है,
हर बात पर ये कहता है,
मेरे अन्दर मेरा खुद का शहर रहता है।  

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